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“जब रबड़ था तो गलतियाँ मासूम थीं, अब स्याही है तो हर लकीर गवाही है”

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“पेंसिल और पेन”

जब हम छोटे होते हैं, हमारे हाथ में एक पेंसिल होती है — नर्म, हल्की, और सबसे ख़ास बात ये कि उसमें एक रबड़ होता है। हम कुछ भी लिखते हैं, और अगर गलती हो जाए तो रबड़ से मिटा देते हैं। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। यही पेंसिल बचपन की तरह होती है — मासूम, सरल और क्षमाशील। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वक़्त हमारे हाथ से पेंसिल छीन कर पेन थमा देता है। पेन — जो लिखता तो है, पर गलती को मिटा नहीं सकता। ज़िंदगी भी कुछ यूं ही होती है।

बचपन — पेंसिल की दुनिया

बचपन वो दौर होता है जहाँ हर चीज़ का हल एक रबड़ होता है। गलती हो जाए, कोई बात नहीं। कॉपी के पिछले पन्नों पर बनाए गए अधूरे घर, आधे इंसान, टूटी लाइनों वाली ड्रॉइंग्स, सबके पीछे वही पेंसिल होती है। माँ डाँटती है, पर फिर गोदी में सुला लेती है। दोस्त नाराज़ होता है, पर अगले ही दिन फिर से गिल्ली डंडा खेला जाता है। ये सब पेंसिल के ज़माने की बातें हैं — जहाँ हर लकीर को ज़रूरत पड़ी तो मिटाया जा सकता था।

पेंसिल की तरह हमारा बचपन भी ग्रे शेड में होता है — न काला, न सफेद — बस एक मासूम धुंधलापन। उस वक़्त ज़िंदगी का मतलब सिर्फ स्कूल की छुट्टी, गर्मियों में आम, और दादी की कहानियाँ होती थीं। उस वक़्त किसी को फर्क नहीं पड़ता था कि हम कितने नंबर लाए या कौन हमारे बारे में क्या कहता है। जैसे पेंसिल से लिखा गया हर शब्द सिर्फ ‘सीखने’ के लिए होता है, वैसा ही बचपन भी होता है — एक सीख।

जवानी — पेन का आगमन

फिर एक दिन अचानक ज़िंदगी कहती है — अब तुम्हें पेन से लिखना है। और वो भी ब्लैक इंक वाला। अब गलती पर रबड़ नहीं चलेगा। अब जो लिख दोगे, वो स्थायी हो जाएगा। तुम्हारे निर्णय, तुम्हारे रिश्ते, तुम्हारे शब्द — सबका असर होगा। अब ज़िंदगी रफ़ कॉपी नहीं रही जहाँ मनचाही ड्रॉइंग बना लो, काट दो, फाड़ दो, छुपा दो। अब ये फेयर कॉपी है, जहाँ हर पन्ना गिनकर लिखा जाना है।

पेन से लिखना सिर्फ एक लेखनी का बदलाव नहीं है, ये सोच का बदलाव है। अब हमें पहले सोचकर बोलना है, समझकर चलना है, और हर कदम पर जवाबदेह बनना है। जवानी का हर फ़ैसला एक स्याही बनकर उतरता है ज़िंदगी की कॉपी में। अब कोई भी गलती सिर्फ मिटाने से नहीं जाती, अब उसे सुधारने के लिए समय, साहस और कभी-कभी आत्मा का एक टुकड़ा लगाना पड़ता है।

गलतियाँ — जो अब दाग़ बन गई हैं

बचपन में गलती एक ‘एरर’ होती थी, अब वो एक ‘स्टिग्मा’ बन जाती है। कभी किसी से कुछ गलत कह दिया, किसी को दुख पहुँचा दिया, किसी मोड़ पर ग़लत रास्ता चुन लिया — अब वो सब हमारे चरित्र की कहानी बन जाती है। लोग भूलते नहीं, और अक्सर हम खुद भी नहीं भूल पाते।

हमारी ज़िंदगी के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं जिन्हें हम दोबारा लिखना चाहते हैं, पर वो पेन से लिखे होते हैं। बस देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, पर मिटा नहीं सकते। ये वो अनुभव हैं जो हमें गहराई से जीना सिखाते हैं — जिनसे हम सीखते हैं, टूटते हैं, और कभी-कभी फिर से खड़े भी होते हैं।

रिश्ते — पेंसिल से पेन तक का सफ़र

रिश्ते भी कुछ ऐसे ही बदलते हैं। बचपन में दोस्ती झगड़े के बाद चॉकलेट से मनाई जाती थी, पर अब… अब किसी को मनाने में आत्म-सम्मान की लड़ाई शामिल हो जाती है। अब रिश्तों की डोर में गांठें लग जाती हैं, और उन्हें खोलना हर बार मुमकिन नहीं होता।

पेंसिल से बनी तस्वीरें मिट जाती थीं, पर पेन से बने रिश्तों की रेखाएं हमेशा बनी रहती हैं — चाहे वो मुस्कुराहट की हों या आँसुओं की।

ज़िम्मेदारियाँ — अब हर शब्द मायने रखता है

अब हर शब्द जो हम कहें, हर फैसला जो हम लें, उसकी कीमत है। अब “माफ़ कर दो” कहना काफी नहीं होता, अब उसके पीछे जज़्बात और भरोसे की गहराई होनी चाहिए। क्योंकि अब हमारी दुनिया हमारी भावनाओं से नहीं, हमारे कर्मों से बनती है।

अब पेंसिल की मासूमियत नहीं है, अब पेन की स्याही है — जो हमारे हाथों से नहीं, हमारे दिल से बहती है। अब हमारा लिखा हुआ सिर्फ कॉपी पर नहीं, कई ज़िंदगियों पर असर करता है।

कभी-कभी हम चाह कर भी नहीं मिटा पाते

कभी ऐसा वक़्त आता है जब हम चाहते हैं कि काश! फिर से पेंसिल मिल जाए। कोई हमें कहे कि “कोई बात नहीं बेटा, मिटा दो”। पर अब वक़्त ये कहता है, “सीख लो, और अगली बार बेहतर लिखो।”

हम चाहें भी तो कुछ पुराने शब्द, पुराने रिश्ते, पुराने फैसले नहीं मिटा सकते। पेन की यही सच्चाई है — जो लिख दिया वो बस अब याद रह जाता है।

सीख — पेंसिल सिखाती है और पेन परखता है

पेंसिल हमें सिखाती है कि सीखना ज़रूरी है, और गलती करना भी। पर पेन हमें परखता है — बताता है कि अब गलती से पहले सोचो। पेंसिल हमें उड़ना सिखाती है, और पेन हमें उड़ान की जिम्मेदारी देना सिखाता है।
दोनों ज़रूरी हैं। कोई भी इंसान सिर्फ पेंसिल या सिर्फ पेन से नहीं बना। हम सब इन दोनों के मेल से बनते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि बचपन में हम मासूम होते हैं, और बड़े होकर ज़िम्मेदार।

अंत — पर एक नई शुरुआत के साथ

ज़िंदगी एक ऐसी किताब है जिसमें पहले पन्ने पेंसिल से लिखे जाते हैं, और बाद के पन्ने पेन से। पर सबसे खूबसूरत बात ये है कि अगर हम चाहें, तो पेन से भी नई कहानी लिख सकते हैं। हम उसे मिटा नहीं सकते, पर उस पर कुछ और सुंदर लिखकर उसे बेहतर बना सकते हैं।
गलतियाँ ज़िंदगी का हिस्सा हैं, पर उन्हें स्वीकार करना और उनसे आगे बढ़ना ही असली हिम्मत है।

लेखक – राहुल मौर्या 

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