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“संवेदनाओं का सूखा और जीवन की लड़ाई: बेज़ुबानों की अनकही त्रासदी”

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एक कटोरा पानी, एक मुट्ठी चावल – बेजुबानों की सिसकती दुनिया

गर्मियों की एक झुलसाती दोपहर थी। आसमान से आग बरस रही थी और ज़मीन पर गर्मी की लहरें तांडव कर रही थीं। लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे — कोई ऑफिस की ओर भाग रहा था, कोई दुकान बंद कर घर लौट रहा था, और कोई स्कूल से थककर आ रहा था। उसी हंगामे में एक बिल्डिंग की बालकनी के पास, ज़मीन पर कुछ पड़ा था — एक नन्हीं चिड़िया, जिसकी जान जा चुकी थी।

उसकी खुली हुई आँखें अब शून्य में ताक रही थीं। न कोई हरकत, न कोई आवाज़। वो बस एक शांत प्रतीक बन गई थी — उस इंसानी बेरुख़ी का, जो उसकी प्यास और भूख को कभी समझ नहीं सकी।

चिड़ियों की चहचहाहट – एक भूला हुआ संगीत

कुछ साल पहले तक सुबह की शुरुआत चिड़ियों की चहचहाहट से होती थी। गाँव की मिट्टी में, शहर की गलियों में, खिड़कियों पर बैठकर गौरैया अपने नन्हे गीत सुनाती थी। आम के पेड़ों पर बैठी कोयल मधुर कुहू-कुहू करती थी, और तोते एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकते हुए मस्ती करते थे।

लेकिन अब?

अब हमारे घरों की खिड़कियाँ कांच की हैं, उन पर परदे लटके हैं। तारों पर बर्ड स्पाइक्स लगे हैं। पेड़ों की जगह टावर और एसी की बाहरी यूनिट्स ने ले ली है। हमारे वातावरण में अब शांति नहीं, बल्कि शोर और मशीनों की गरज है।

चिड़ियाँ कहाँ गईं?

कंक्रीट की दुनिया – बेजुबानों का ख़ाली होता घर

हमने अपने विकास की रफ्तार को इतनी तेज़ी से बढ़ाया कि भूल गए कि हम अकेले इस धरती पर नहीं हैं। हमने शहरों को ऊँचा किया, लेकिन पेड़ों को गिरा दिया। हमने गलियों को चौड़ा किया, लेकिन परिंदों की उड़ानों को सीमित कर दिया। आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो अपने साथ-साथ उन बेजुबानों को भी खोते हुए पाते हैं, जिनकी मासूम उपस्थिति कभी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी।

गौरैया, जो कभी हर घर की पहचान थी, अब लुप्तप्राय हो गई है। चिड़ियों की संख्या में आई भारी गिरावट इस बात का प्रमाण है कि हमारी “तरक़्क़ी” ने उनके लिए जगह ही नहीं छोड़ी।

प्यास – सबसे खतरनाक ख़ामोशी

गर्मी के मौसम में जब तापमान 45 डिग्री सेल्सियस पार कर जाता है, तो हमारे शरीर में पानी की कमी महसूस होने लगती है। हम फ्रिज खोलकर बोतल निकालते हैं, किसी दुकान से शीतल पेय खरीद लेते हैं, लेकिन उन परिंदों का क्या?

उनके पास न तो बोतलें हैं, न दुकानें। उनके पास सिर्फ़ एक आस होती है – कि कोई कहीं पानी रख दे।

हर साल लाखों चिड़ियाँ सिर्फ़ इसलिए मर जाती हैं क्योंकि उन्हें पीने के लिए एक बूंद पानी नहीं मिलता। वो छतों पर, बालकनियों में, सड़कों के किनारे गिरकर दम तोड़ देती हैं। उनके सूखे गले और थकी हुई आँखें बस एक बात कहती हैं – “क्या कोई है जो हमारी प्यास देख सकता है?”

एक मासूम बच्चा – और इंसानियत की झलक

कुछ समय पहले एक खबर सामने आई थी जिसने दिल को झकझोर दिया। एक सात साल का बच्चा हर रोज़ अपनी छत पर एक कटोरा पानी और एक मुट्ठी चावल रखता था। उसकी माँ ने पूछा, “क्यों करते हो ये रोज़?”

बच्चा बोला, “एक चिड़िया आती थी, रोज़। अब नहीं आती। शायद प्यास से मर गई। अब मैं चाहता हूँ कि कोई और चिड़िया भूख या प्यास से न मरे।”

उस मासूम का दिल इंसानियत से भरा था। क्या हम बड़े इस मासूमियत को भूल चुके हैं?

विकास का दूसरा पहलू – प्रगति या प्रकृति से द्रोह?

हम गर्व से कहते हैं कि हमने स्मार्ट सिटी बनाई, चौड़ी सड़कें बनाईं, ऊँची इमारतें बनाईं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि उन सड़कों पर कितने नन्हें जीव कुचले गए? उन इमारतों के लिए कितने पेड़ कटे?

हमने प्रकृति से लिया बहुत कुछ, लेकिन बदले में उसे दिया क्या? एक चिड़िया का बसेरा, एक पेड़ की छाया, एक तालाब की शांति – क्या ये सब हमारी प्रगति की कीमत पर जाना ज़रूरी था?

मौन प्रार्थना – अगर वो बोल पातीं

कल्पना कीजिए, अगर चिड़ियाँ बोल सकतीं, तो शायद वो कहतीं:

“तुमने हमारे पेड़ काट दिए, हमने फिर भी तुम्हें दोष नहीं दिया।
तुमने हमारे घोंसले गिराए, हमने दोबारा बनाए।
तुमने तारों पर काटने वाले कांटे लगा दिए, हमने दूसरी जगह उड़ने की कोशिश की।
लेकिन अब जब तुमने पानी और दाने भी छीन लिए… अब हम कहाँ जाएं?”

उनकी ये मौन प्रार्थना हर गर्मी में गूंजती है, लेकिन हम सुनते नहीं।

हमारी एक छोटी-सी पहल – उनकी एक बड़ी उम्मीद

अगर हर इंसान अपनी छत पर एक कटोरा पानी और थोड़े से दाने रख दे, तो कितनी जानें बच सकती हैं? सोचिए, एक ऐसा काम जिसमें न समय लगे, न पैसा, न मेहनत – फिर भी उसका असर जीवन देने वाला हो सकता है।

आपके रखे हुए चावल के कुछ दाने किसी चिड़िया का पेट भर सकते हैं। आपका रखा कटोरा पानी किसी प्यासे को राहत दे सकता है।

पर्यावरणीय संतुलन – चिड़ियाँ सिर्फ़ सुंदरता नहीं हैं

बहुत से लोग सोचते हैं कि चिड़ियाँ बस देखने और सुनने की चीज़ हैं – लेकिन ये सच नहीं है। चिड़ियाँ पर्यावरण के लिए बेहद जरूरी हैं। वे फसलों में कीटों को खाकर प्राकृतिक कीटनाशक का काम करती हैं। बीजों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर हरियाली को फैलाती हैं। फूलों से परागण में मदद करती हैं, जिससे फल-फूल उगते हैं।

अगर चिड़ियाँ गायब हो गईं, तो हमारे खेत सूख जाएंगे, फूल कम हो जाएंगे, और जीवन का संतुलन बिगड़ जाएगा।

प्राकृतिक प्रतिशोध – धीरे-धीरे लेकिन निश्चित

प्रकृति कभी तुरंत बदला नहीं लेती, लेकिन उसका बदला स्थायी और घातक होता है। आज चिड़ियाँ नहीं हैं, कल मधुमक्खियाँ नहीं होंगी। परसों तितलियाँ। और फिर एक दिन, हम इंसान भी नहीं रहेंगे।

क्योंकि जब प्राकृतिक श्रृंखला टूटती है, तो उसका असर पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है – और अंततः हम पर भी।

बच्चों को सिखाएं – दया ज़रूरी है

आज अगर हम अपने बच्चों को किताबों में नैतिक शिक्षा पढ़ाते हैं, तो उसे व्यवहार में भी लाएं। उन्हें बताएं कि दया सिर्फ़ इंसानों के लिए नहीं होती। चिड़ियाँ, गिलहरियाँ, कुत्ते, बिल्ली – सब हमारे साथ इस धरती पर बराबर के हक़दार हैं।

बच्चों के साथ एक प्रोजेक्ट बनाएं – “हर दिन एक कटोरा पानी”। उन्हें शामिल करें, उन्हें समझाएं। यही संस्कार कल उन्हें बेहतर इंसान बनाएंगे।

सरकारी और सामाजिक भागीदारी

इस समस्या का हल केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं होगा। नगरपालिकाओं को भी जिम्मेदारी लेनी होगी। पार्कों में, खुले स्थानों में पानी के कटोरे रखने चाहिए। स्कूलों में जागरूकता कार्यक्रम होने चाहिए। सोशल मीडिया पर अभियान चलाने चाहिए – ताकि लोग सिर्फ़ तस्वीरें न देखें, बल्कि कदम उठाएं।

एनजीओ और सामाजिक संगठन इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं। “फीड ए बर्ड” जैसे कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। इसके अलावा, इमारतों में पक्षी घोंसला लगवाने की संस्कृति भी बढ़ानी चाहिए।

टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल – परिंदों के लिए

आजकल ऐसे सौर ऊर्जा से चलने वाले वाटर डिस्पेंसर उपलब्ध हैं जो ऑटोमेटिक पानी भरते हैं। मोबाइल ऐप्स हैं जो आसपास के पक्षियों की पहचान करवाते हैं। हम तकनीक का प्रयोग सिर्फ़ मनोरंजन या सुविधा के लिए नहीं, बल्कि प्रकृति की मदद के लिए भी कर सकते हैं।

गर्मी का मौसम – बेजुबानों के लिए सबसे क्रूर वक़्त

मार्च से जून तक का समय चिड़ियों के लिए सबसे मुश्किल होता है। तापमान चरम पर होता है और जल स्रोत सूख जाते हैं। इस समय सबसे ज्यादा पक्षी दम तोड़ते हैं। इसलिए यह समय बेहद संवेदनशील है।

हर छत पर एक कटोरा हो। हर बालकनी में थोड़े दाने हों। हर पार्क में एक बर्ड हाउस हो।

आपके एक कदम से – किसी की दुनिया बन सकती है

अगर आप रोज़ एक गिलास पानी पीने से पहले सोचें कि कोई और भी प्यासा है – तो आप में करुणा है।

अगर आप चिड़ियों के लिए पानी और दाना रखते हैं – तो आप में इंसानियत है।

अगर आप दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं – तो आप समाज बदल सकते हैं।

अंतिम शब्द – एक पुकार, एक आह, एक उम्मीद

ये लेख सिर्फ़ शब्द नहीं हैं। ये एक पुकार है – उन परिंदों की, जो हर दिन हमारे सिर के ऊपर से उड़ते हैं, बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे। ये एक आह है – उन बेजुबानों की, जो सूखे गले से दम तोड़ देते हैं। और ये एक उम्मीद है – कि शायद कोई, कहीं, उनके लिए एक कटोरा पानी और एक मुट्ठी चावल रख दे।

अगर आज हम नहीं जगे, तो कल हमारी दुनिया बहुत सूनी होगी – बिना चहचहाहट, बिना परिंदों के गीत, बिना उन मासूम पंखों के जो हमारी प्रकृति को पूरा बनाते हैं।

अब भी वक़्त है… उठिए, एक कटोरा रखिए।
एक मुट्ठी चावल दीजिए।
और अपने भीतर सोई करुणा को जगाइए।

लेखक – राहुल मौर्या 

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