“एक देश, एक चुनाव” लोकतांत्रिक संरचना पर हमला
भारत एक ऐसा लोकतंत्र है, जो अपनी विविधता और संघीय ढांचे की वजह से विश्व में अद्वितीय है। यहां लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, जिससे लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती मिलती है। “एक देश, एक चुनाव” का विचार सुनने में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन यह देश की संघीय संरचना और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गहरे खतरे का संकेत देता है।
लोकतांत्रिक संतुलन का महत्व
लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के अलग-अलग समय पर होने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर स्पष्ट ध्यान दिया जा सकता है। मतदाता हर चुनाव में संबंधित मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय चुनाव में विदेशी नीति, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा जैसे विषय केंद्र में होते हैं, जबकि राज्य चुनावों में शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और बुनियादी ढांचे जैसे स्थानीय मुद्दों पर चर्चा होती है।
अगर दोनों चुनाव एक साथ कर दिए जाएं, तो लोकसभा का प्रभाव इतना बड़ा होगा कि राज्य स्तरीय मुद्दे दबकर रह जाएंगे। राष्ट्रीय नेताओं और भावनात्मक मुद्दों का उपयोग कर राजनीतिक दल राज्यों में भी अपना वर्चस्व कायम कर सकते हैं, जिससे लोकतंत्र की संघीय भावना समाप्त हो जाएगी।
तानाशाही की ओर बढ़ता कदम?
“एक देश, एक चुनाव” का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह केंद्र सरकार को अप्रत्याशित शक्ति प्रदान कर सकता है। पांच साल तक यदि किसी पार्टी को लोकसभा और अधिकतर राज्यों में पूर्ण बहुमत मिल जाता है, तो उसके लिए तानाशाही प्रवृत्ति अपनाना आसान हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था में केवल एक राजनीतिक दल का फायदा होगा, लेकिन वर्तमान सत्ताधारी दल यानी बीजेपी की मंशा साफ नजर आती है।
बीजेपी यह मानती है कि 2014 में यदि “एक देश, एक चुनाव” लागू होता, तो मोदी लहर का फायदा उठाकर पार्टी ने न केवल लोकसभा बल्कि कई राज्यों की विधानसभाओं में भी पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया होता। लेकिन पिछले कुछ सालों में बीजेपी को राज्यों के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में बीजेपी को करारी शिकस्त मिली है। ये हार यह दिखाती हैं कि मोदी जी का प्रभाव लोकसभा चुनावों की तुलना में राज्यों में उतना प्रभावी नहीं है।
बीजेपी इस सच्चाई को समझ चुकी है कि विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों का किला तोड़ना इतना आसान नहीं है। इसीलिए अब वह “एक देश, एक चुनाव” का कानून लाने की कोशिश कर रही है, ताकि भावनात्मक मुद्दों और राष्ट्रीय स्तर के प्रचार का फायदा उठाकर वह राज्यों की सत्ता पर भी कब्जा कर सके।
लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन
“एक देश, एक चुनाव” का सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि इससे लोकतंत्र के मूल सिद्धांत कमजोर हो जाएंगे। वर्तमान प्रणाली में, जब हर साल किसी न किसी राज्य का चुनाव होता है, तो सरकार पर जनता का दबाव बना रहता है। जनता की समस्याओं को सुनने और समाधान देने का चक्र लगातार चलता रहता है। लेकिन यदि पांच साल तक कोई चुनाव नहीं होगा, तो सत्तारूढ़ दल का जवाबदेही से बचना आसान हो जाएगा।
इतना ही नहीं, “एक देश, एक चुनाव” के कारण छोटे और क्षेत्रीय दल कमजोर हो जाएंगे। वे राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों और संसाधनों के अभाव में अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचा पाएंगे। इससे सत्ता का केंद्रीकरण होगा, और लोकतंत्र में विविधता का स्थान सिमट जाएगा।
बीजेपी की मंशा पर सवाल
बीजेपी की यह पहल उसकी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। दिल्ली, बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, झारखंड, तेलंगाना और बिहार जैसे राज्यों में हार के बाद बीजेपी को यह एहसास हुआ कि लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के जरिए जीत हासिल करना संभव है, लेकिन राज्यों में क्षेत्रीय नेताओं और स्थानीय मुद्दों के सामने यह रणनीति विफल हो जाती है। “एक देश, एक चुनाव” का उद्देश्य इस असंतुलन को खत्म करना नहीं है, बल्कि इसे अपने पक्ष में करना है।
बीजेपी यह समझती है कि जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे, तो मतदाता राष्ट्रीय भावनाओं और बड़े मुद्दों के आधार पर वोट देंगे, जिससे विधानसभा के चुनावों में भी उन्हें फायदा होगा। यह लोकतांत्रिक परंपरा के लिए विनाशकारी होगा।
लोकतंत्र की रक्षा के लिए सामूहिक प्रयास
“एक देश, एक चुनाव” का विचार देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकता है। हमें यह समझना होगा कि चुनाव कोई झंझट या खर्चा नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र का उत्सव है। यह वह प्रक्रिया है, जो सत्ताधारी दलों को जवाबदेह बनाती है।
भारत की विविधता और संघीय व्यवस्था हमारी सबसे बड़ी ताकत है। इसे कमजोर करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाना चाहिए। लोकतंत्र किसी एक व्यक्ति या पार्टी के लिए नहीं, बल्कि हर नागरिक के अधिकारों और उनकी आवाज के लिए है। यदि “एक देश, एक चुनाव” को लागू किया गया, तो यह न केवल क्षेत्रीय स्वायत्तता बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाएगा।
हमें इस प्रस्ताव को एकतरफा देखने के बजाय इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करना चाहिए। सत्ता के केंद्रीकरण की हर कोशिश का विरोध करना हर भारतीय का कर्तव्य है, ताकि हमारे लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत हो सकें।
-सत्यम प्रजापति
लेखक, सामयिक विचारक
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