उत्तर प्रदेश की सियासत में लगातार कमजोर होती बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अब दोबारा अपनी ताकत जुटाने की कोशिश में लग गई है। पार्टी की मुखिया मायावती ने कांशीराम की परिनिर्वाण दिवस (9 अक्टूबर) पर राजधानी लखनऊ में बड़ी रैली करने का ऐलान किया है। इसे बसपा के ‘मिशन-2027’ की औपचारिक शुरुआत माना जा रहा है।
पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में करारी हार झेल चुकी बसपा ने अब बदली हुई रणनीति पर काम शुरू किया है। 2022 में बसपा केवल एक सीट जीत पाई थी और 2024 लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला। बसपा का वोट शेयर घटकर 9.39 फीसदी पर सिमट गया था। लगातार हार से पार्टी के कई बड़े नेता अलग हो गए और जाटव समुदाय पर मायावती की पकड़ भी कमजोर पड़ी।
इस बार मायावती ने रणनीति को गोपनीय और व्यवस्थित बनाने पर जोर दिया है। पार्टी बूथ स्तर तक बैठकों और संवाद कार्यक्रम चला रही है। प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल से लेकर मंडल कोऑर्डिनेटर तक गांव-गांव कैडर कैंप और छोटी बैठकें कर रहे हैं। इन बैठकों में दलित वोटरों को एकजुट करने के साथ अतिपिछड़े और मुस्लिम समाज को भी बसपा से जोड़ने की कोशिश हो रही है।
मायावती ने पार्टी छोड़ चुके नेताओं को वापस लाने की कवायद भी शुरू कर दी है। हाल ही में उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद के ससुर और वरिष्ठ नेता अशोक सिद्धार्थ की घर वापसी कराई है। आकाश आनंद को पहले ही सियासी तौर पर प्रमोट किया जा चुका है और उन्हें सक्रिय जिम्मेदारी सौंपी गई है।
सियासी विश्लेषकों का मानना है कि बसपा का मजबूत होना समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है। दरअसल, 2024 में अखिलेश यादव ने पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) फार्मूले के जरिए भाजपा को कड़ी चुनौती दी थी। ऐसे में अगर मायावती उसी समीकरण को साधने में कामयाब हो जाती हैं तो सपा का वोट बैंक खिसक सकता है।
बसपा की वापसी से कांग्रेस भी प्रभावित हो सकती है, क्योंकि दलित और गैर-यादव ओबीसी वोट, जो हाल में सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर झुके थे, दोबारा बसपा के खाते में जा सकते हैं।
वहीं, सपा प्रवक्ता मोहम्मद आज़म ने मायावती की कोशिशों को खारिज करते हुए कहा कि बसपा की राजनीति अब अप्रासंगिक हो चुकी है। उनका आरोप है कि मायावती भाजपा से लड़ने के बजाय विपक्षी दलों से लड़ रही हैं और इस वजह से दलित-ओबीसी समाज उन पर भरोसा नहीं कर रहा। आज़म के मुताबिक, संविधान और आरक्षण की लड़ाई आज सिर्फ अखिलेश यादव लड़ रहे हैं।
कुल मिलाकर, मायावती ने यूपी की राजनीति में फिर से सक्रियता दिखाकर सियासी हलचल तेज कर दी है। बसपा की कोशिश अपने बेस वोट को वापस पाने और त्रिकोणीय मुकाबला खड़ा करने की है। अब देखना होगा कि मायावती की ये रणनीति 2027 के विधानसभा चुनाव तक कितनी असरदार साबित होती है और क्या वह वाकई यूपी की दोध्रुवीय राजनीति को बदलकर सपा के लिए मुश्किलें बढ़ा पाएंगी।
