प्रयागराज महाकुंभ में 2 विदेशी महिलाओं समेत 100 महिलाओं ने नागा संन्यासी की दीक्षा ली। इन महिलाओं में विभिन्न आयु वर्ग की शामिल हैं और सभी जूना अखाड़े से जुड़ी हुई हैं। दीक्षा के साथ ही उनकी जिंदगी में एक बड़ा परिवर्तन आ गया है। इन महिलाओं ने संगम घाट पर अपने केश कटवाए और अपने जीवनकाल में ही स्वयं और अपनी सात पीढ़ियों का पिंडदान किया। गंगा नदी में 17 पिंड बनाए गए, जिनमें से 16 उनके पूर्वजों के और एक उनका खुद का था।
दीक्षा प्रक्रिया के तहत गंगा स्नान के बाद उन्होंने गेरुआ वस्त्र त्याग दिए और बिना सिले श्वेत वस्त्र धारण किए। 20 जनवरी को उन्हें आचार्य महामंडलेश्वर द्वारा मंत्र दिए जाएंगे, जबकि कठिन साधना की यह प्रक्रिया 29 जनवरी को मौनी अमावस्या तक चलेगी, जब सभी महिलाएं नागा संन्यास की अंतिम दीक्षा लेंगी।
अमेरिका और इटली की महिलाएं बनीं नागा संन्यासी
इस दीक्षा में अमेरिका और इटली से आई दो महिलाओं ने भी भाग लिया। इनमें से एक महिला 55 वर्ष की हैं, जबकि दूसरी युवा हैं। अमेरिका की महिला को “कामाख्या देवी” और इटली की महिला को “शिवानी” नाम दिया गया।
मनकामेश्वर मठ, लखनऊ की दिव्या गिरी ने बताया कि महिला नागा संन्यासियों को भी पुरुष नागा संन्यासियों की तरह तपस्या करनी होती है। उन्हें श्रृंगार और सांसारिक वस्तुओं का त्याग करना पड़ता है। सनातन धर्म में सामान्यतः महिलाओं का पिंडदान करना अनुचित माना जाता है, लेकिन साध्वी जीवन अपनाने वाली महिलाओं पर यह नियम लागू नहीं होते।
दिव्या गिरी ने बताया कि पिंडदान का उद्देश्य यह होता है कि मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार के लिए कोई उपलब्ध न हो, तब भी आत्मा का मोक्ष सुनिश्चित हो सके। दीक्षा के दौरान धर्म ध्वजा के नीचे तपस्या और संस्कार की शुरुआत 24 घंटे पहले होती है। साध्वियां बिना भोजन-पानी के उपवास करती हैं और गंगा में 108 डुबकियां लगाती हैं। कर्म और विजय हवन के साथ प्रक्रिया पूरी होती है।
नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया
महिला नागा संन्यासी बनने के लिए लगभग वही नियम लागू होते हैं, जो पुरुष नागा संन्यासियों के लिए होते हैं। इच्छुक महिला की मानसिक और शारीरिक स्थिति की पूरी जांच होती है। परिवार की अनुमति ली जाती है और गुरु चुनने के बाद दो-तीन वर्ष तक अखाड़े में सेवा करनी होती है। इस अवधि में उन्हें वरिष्ठ साधुओं के लिए भोजन बनाना, स्थानों की सफाई करना, साधना और शास्त्रों का अध्ययन करना पड़ता है।
इस दौरान उन्हें दिन में केवल एक बार भोजन करने की अनुमति होती है। काम, नींद और भूख पर नियंत्रण की परीक्षा ली जाती है। अगर कोई महिला मोह-माया या परिवार के मोह में पड़ती है तो उसे वापस घर भेज दिया जाता है। यदि वह परख अवधि में सफल होती है और फिर भी सांसारिक जीवन में लौटने से इनकार करती है, तब उसे पंच संस्कार दिया जाता है।
पंच संस्कार में शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश की आराधना कराई जाती है। उसे नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष और भभूत दिए जाते हैं। गुरु अपनी कटारी से उसकी शिखा काटते हैं और शीरा व धनिया प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
पिंडदान और स्नान
संन्यास के अगले चरण में सुबह चार बजे साध्वियों को उठाया जाता है। नित्य कर्म और साधना के बाद उन्हें गंगा किनारे ले जाया जाता है। यहां उनके शरीर से बाल हटाकर उन्हें नवजात शिशु जैसा शुद्ध किया जाता है। गंगा स्नान के बाद 17 पिंडदान किए जाते हैं — 16 पूर्वजों के लिए और 17वां स्वयं के लिए। इसके बाद वे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाती हैं।
दीक्षा प्रक्रिया के दौरान, आधी रात में विरजा यज्ञ किया जाता है। गुरु फिर से यह कहते हैं कि यदि वे चाहें तो सांसारिक जीवन में लौट सकती हैं। जब साध्वियां मना कर देती हैं, तब उन्हें धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर “ऊं नमः शिवाय” का जाप कराया जाता है।
महिला नागा संन्यासी बनने में लगने वाला समय
महिला नागा साधु बनने की प्रक्रिया में 10 से 12 वर्ष का समय लग सकता है। उन्हें ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करना होता है। पुरुष नागा साधुओं के विपरीत, महिलाओं को केवल ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लेना होता है। जब गुरु को यह विश्वास हो जाता है कि महिला साध्वी मोह-माया से मुक्त है, तब उन्हें दीक्षा दी जाती है।
ज्यादातर महिला नागा साध्वियां जूना अखाड़े से जुड़ी होती हैं। 2013 में पहली बार महिला नागा संन्यासियों का जुड़ाव जूना अखाड़े से हुआ था। इस अखाड़े में सबसे अधिक महिला नागा हैं। इसके अलावा आह्वान अखाड़ा, निरंजन अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा और आनंद अखाड़े में भी महिला नागा संन्यासिनियां होती हैं।
अखाड़े में सबसे वरिष्ठ महिला नागा संन्यासिनी को “श्रीमहंत” का पद दिया जाता है। शाही स्नान के दिन इन्हें पालकी में लाया जाता है और अखाड़े की ध्वजा एवं डंका लगाने का अधिकार इन्हें प्राप्त होता है।